सिद्ध देह – सिद्ध नित्य अध्यात्मिक स्वरुप
श्री गुरु की कृपा से जो भक्त, अनावश्यक भौतिक इच्छाओं से मुक्त होते हैं और श्री कृष्ण की प्रेममयी सेवा करने के लिए सहज रूप से इच्छुक रहते हैं, वे दो तरह से भक्ति का अभ्यास करते हैं| यह भक्ति उन ब्रजवासियों के पद्चिन्हों पर चल कर होती है जिन्हें श्री कृष्ण से अथाह प्रेम और अनुराग है| भक्ति के ये दो अभ्यास हैं – पहला साधक देह जिसमें भक्त (साधक) इस भौतिक शरीर में इस भौतिक जगत में भक्ति करता है और दूसरा है सिद्ध देह जिसमें साधक अध्यात्मिक जगत में अपने स्वरुप सिद्ध देह में श्री भगवान् की सेवा में संलग्न रहता है|
बाह्य, अन्तर – इहार दुइ त’ साधन
‘बाह्ये’ साधक-देहे करे श्रवन-कीर्तन
मने निज-सिद्ध-देह करिया भावन
रात्रि-दिने करे व्रजे कृष्णेर सेवन
अनुवाद : दो तरह के अभ्यास होते हैं एक बाहरी और एक आतंरिक| बाहरी रूप से साधक इस भौतिक शरीर में, इस भौतिक जगत में भगवान् श्री कृष्ण के नाम, रूप, गुण और लीला का श्रवण और कीर्तन करता है| और दूसरी तरफ वह अपने स्वरुप सिद्ध देह में मानसिक रूप से दिन रात ब्रज में कृष्ण की सेवा करता है|
परन्तु बहुत से ऐसे नक़ल करने वाले बहुरूपिये भी हैं जो अध्यात्मिक विषयों की गंभीरता को नहीं समझते (प्राकट्य सहजिया सम्प्रदाय) और जो सिद्ध देह को एक भौतिक विषय समझते हैं| ऐसे लोगों ने बहुत सी दूषित धारणायें और गंभीर परिस्थितियों को खड़ा कर दिया है|
उपर्युक्तप श्लोक को पढ़कर बहुत से लोगों को गलत धारणा हो जाती है| वे इस श्लोक का गलत अर्थ निकालकर ये सोचते हैं कि हमें मानसिक तौर पर भौतिक इन्द्रिय सुख और आसक्तियों से बंधे रहना है|
बहुत से ऐसे गुरु वंश सामने आने लगे हैं जिनमें ऐसे तथाकथित गुरु हैं जो इस तरह की गलत धारणाओं का प्रचार कर रहे हैं| अगर आप वृन्दावन और नवद्वीप में दो चार पैसे खर्च कर दें तो आपको बहुत से ऐसे गुरु मिलेंगे जो आपको सिद्ध प्रणाली (स्वरुप सिद्ध देह, सेवा इत्यादि) देने को तैयार हो जायेंगे| ऐसे गुरु या तो अनपढ़ होते हैं या फिर कई बार इन्हें किसी भाषा या व्याकरण के ज्ञान का अभिमान होता है|
ऐसे लोग अपने आपको गौड़िय वैष्णव कहते हैं या फिर ये अपने आपको ब्रजवासियों का अनुसरण करने वाला बताते हैं| पर वास्तव में ये बद्ध जीव होते हैं जो इन्द्रिय तृप्ति की इच्छा रखते हैं और जिन्हें अब भी भौतिक आसक्तियां हैं| इस प्रकार के प्राकट्य सहजिया सम्प्रदाय समस्त ब्रज मंडल में पाए जाते हैं| ऐसे लोग इस अभिमान में रहते हैं कि यह पूर्ण रूप से वैरागी हैं| यहाँ तक कि इन्होंने धातु की वस्तुओं को छूने से भी वैराग्य ले लिया है|
ये तथाकथित वैरागी जो अपने आपको सिद्ध पुरुष मानते हैं वस्स्ताविकता में भौतिक इच्छाओं और आसक्तियों से लिप्त होते हैं| इन्हें अध्यात्मिक आस्वादन (रूचि) की एक दूषित समझ होती है| इनकी ये धारणा है कि जीव की भौतिक इच्छाएं उसके अध्यात्मिक लोभ और अध्यात्मिक आस्वादन का ही लक्षण है|
ऐसे लोगों में बहुत सी अनावश्यक भौतिक आसक्तियां (अनर्थ युक्त) होती हैं और इनमें इन्द्रिय तृप्ति की बहुत सी लालसायें छुपी होती हैं| हांलाकि वह इन लालसाओं को समझ नहीं पाते हैं| ऐसे लोग जिन्हें इन्द्रिय तृप्तियों से आसक्ति होती है या फिर वह जिन्हें अपने तथाकथित वैराग्य पर अभिमान होता है वह कभी भी स्वरुप सिद्ध देह की परिकल्पना भी नहीं कर सकते|
कोई भी व्यक्ति अपनी कल्पना से या फिर किताबों में पढ़कर किसी व्यक्ति विशेष का अनुसरण करके सिद्ध देह की रचना नहीं कर सकता| ये तो केवल वही दिव्य गुरु, जो श्रील रूप गोस्वामी के पद्द चिन्हों पर चल रहा है, अपने ऐसे शिष्य को उचित समय पर दे सकता है, जो शिष्य (साधक) सभी अनावश्यक भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो चुका हो| ऐसे उचित समय पर ही गुरु साधक को, उसके प्रमाणित नित्य प्राकिर्तिक सिद्ध स्वरुप में, उसकी शुद्ध चेतना में उसे स्थित करके, नित्य धाम में उसकी सेवा उसे प्रकाशित करते हैं|
दिव्य ज्ञान द्वारा या फिर दीक्षा सिद्धि द्वारा ही ये नित्य सिद्ध देह, गुरु द्वारा अपने शिष्य को प्रकाशित किया जाता है| केवल गुरु द्वारा दिए जाने के उपरान्त ही साधक में ये योग्यताआती है कि वह अपने सिद्ध देह के सम्बन्ध में विचार करे| सिद्ध देह की प्राप्ति के उपरान्त भी साधक बाहरी रूप से भगवान् के नाम, रूप, गुण और लीलाओं का श्रवण अपने गुरु और अन्य वैष्णवों के मुख से करता रहता है| इसके साथ ही वह भगवान् के गुणों का गुणगान भी करता रहता है|
साधक अपने श्री गुरु, जो कि कृष्ण के बहुत प्रिय हैं और निरंतर कृष्ण की सेवा में रहते हैं, के पद्द्चिन्हों पर चलकर, भगवान् की अष्टकाली लीला में संलग्न रहता है| इस स्वरुप में ऐसा एक पल भी नहीं होता जब साधक ब्रज की दिव्य सेवा का अनुभव न करे|
कभी कभी साधक जो कि अनावश्यक भौतिक आसक्तियों से मुक्त हो चुका है, पृथ्वी पर ब्रज मंडल में निवास करके, भगवान् के पवित्र नामों का श्रवण और कीर्तन करके अपने श्री गुरु के पद्द्चिन्हों पर चलता है| तो कभी कभी साधक गौर मंडल में निवास करके, जो कि ब्रज मंडल से अभिन्न है, भगवान् के नामों में लीन होकर अत्यंत प्रफुल्लता का अनुभव करता है|
कभी कभी साधक स्वयं शारीरिक रूप से ब्रज में नहीं होता परन्तु अपने दिव्य शुद्ध देह से, भगवान् के पवित्र नाम का जप करके, चौबीस घंटे कृष्ण की सेवा में संलग्न रहता है| ऐसे समय में उसे लेश मात्र भी भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति या द्वेष नहीं होता और न ही ऐसे तुच्छ विषयों की तरफ उसका झुकाव होता है|
श्री गौरसुंदर ने कहा है –
आनेर हृदय मन, मोर मन वृन्दावन,
मने वने एक करि’ मानि
ताहे तोमार पादद्वय, करह यदि उदय,
तबे तव पूर्ण कृपा मानि
अनुवाद – अन्य लोगों का हृदय उनका मन है परन्तु मेरा मन वृन्दावन है| मेरा मन और वृन्दावन एक ही हैं| अगर आप अपने कमल चरण मेरे वृन्दावन रुपी मन पर रखेंगे तभी मैं यह मानूंगा कि आपने मुझ पर सम्पूर्ण कृपा की है|
ब्रजवासियों के पद्द्चिन्हों पर चलने वाले महान भक्तों में से एक श्रील नरोत्तम दास ठाकुर ने गाया है,
विषय छाडिया कबे शुद्ध हबे मन
कबे हाम हेरब श्रीवृन्दावन
अनुवाद – कब मेरा मन इन्द्रिय तृप्तियों से मुक्त होकर शुद्ध होगा? आखिर कब मैं श्री वृन्दावन के दर्शन कर पाऊँगा?
इन दोनों श्लोकों में जो शुद्ध मन की बात की गयी है वह मन वृन्दावन से अभिन्न है| यह वह मन नहीं है जो अज्ञान से ढका हुआ है, जिसकी बहुत सी अनावश्यक भौतिक इच्छाएं हैं और जो इन्द्रिय तृप्ति में लीन है| इस तरह का मन सिद्ध देह के बारे में सोच भी नहीं सकता| यह बात प्राकट्य सहजिया लोगों की भौतिक बुद्धि को समझ नहीं आ पा रही है| इस प्रकार ऐसे लोग स-गुनपन्चोपसकस् की तरह बन जाते हैं| ऐसे लोग अपनी साधना के लिए भगवान् के एक काल्पनिक रूप की धारणा कर लेते हैं और सिद्ध देह के बारे में भी इनकी एक काल्पनिक विचाधारा होती है|
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने सिद्ध देह के प्रकाश के बारे में बहुत ही स्पष्ट शब्दों में एक सुनियोजित प्रक्रिया बताई है –
श्री रूप गोसाञि, श्री गुरु रूपेते, शिक्षा दिल मोर काने
जान मोर कथा, नामेर काङ्गाल, रति पाबे नाम-गाने
कृष्ण-नाम-रूप, गुण-सुचरित, परम यतने करि’
रसना-मानसे करह नियोग, क्रमविधि अनुसरि’
व्रजे करि’ वास, रागानुगा हञा, स्मरण कीर्तन कर
ए निखिल काल, करह यापन, उपदेश-सार धर
हा रूप गोसाञि, दया करि’ कबे, दिबे दीने व्रजे वास
रागात्मिक तुमि, तव पादानुग, हैते दासेर आश
अनुवाद – श्री रूप गोस्वामी ने, गुरु के रूप में मेरे कानों में अध्यात्मिक ज्ञान दिया है| मेरी बात सुनों सभी लोग, मैं भगवान् के पवित्र नामों का एक भिखारी हूँ और भगवान् के नामों का गान करने से ही भगवान् में रति होती है| पूरी सावधानी के साथ और पूरा प्रयास करके एक नियमित क्रिया का पालन करते हुए, जिह्वा और मन दोनों को भगवान् के नाम, रूप, गुण और लीला में लगायें| ब्रज में वास करके, उन महान भक्तों के पद्द्चिन्हों पर चलिए जिन्हें कृष्ण से अथाह प्रेम है और जो सदैव कृष्ण का स्मरण करते हैं और उनका गुणगान करते हैं| इन उपदेशों को सभी चीज़ों का सार समझकर अपने हृदय में धारण करें और अपना समय इस पर लगायें| ओह! रूप गोस्वामी कब आप मुझ पर कृपा करके मुझ जैसे अधम को वृन्दावन में वास देंगे? आपको कृष्ण से शुद्ध प्रेम है और आपके इस दास की यही इच्छा है कि आपके इन दिव्य चरणों का अनुगामी बन सके|
गुरुदेव! कबे मोर सेइ दिन ह’बे?
मन स्थिर करि’, निर्जने बसिया, कृष्ण नाम गाब यबे
संसार फुकार, काने ना पशिबे, देह-रोग दूरे र’बे
निष्कपटे हेन, दशा कबे हबे, निरन्तर नाम गा’ब
आबेशे रहिया, देह-यात्रा करि’ ,तोमार करुणा पाब
गौड-व्रज-जने, भेद ना देखिब, हैब वरजवासी
धामेर स्वरूप, स्फुरिबे नयने, हैब राधार दासी
अनुवाद – गुरुदेव! मेरे जीवन में कब वह दिन आएगा? वह दिन जब मैं एकांत में बैठकर अपना मन स्थिरता से भगवान् के नाम के जप में लगा सकूँगा| वह दिन जब भौतिक जीवन की ध्वनीयां मेरे कानों तक नहीं पहुंचेगी और शारीरिक रोग मुझसे दूर होंगे| कब मेरी मनः स्थिति ऐसी होगी जब मैं छल कपट से मुक्त हो जाऊँगा और निरंतर भगवान् के पवित्र नाम के जप में संलग्न रहूँगा? इस शरीर का निर्वाह करते हुए कब मुझे आपकी कृपा मिलेगी? ऐसा कब होगा जब मुझे व्रज के वनों में और गौड़ के वनों में कोई भिन्नता नहीं दिखेगी और मैं ब्रजवासी बन जाऊँगा? कब वह दिन आएगा जब धाम का नित्य रूप मेरी आँखों के सामने प्रकाशित होगा और मैं श्रीमती राधारानी की दासी बन जाऊँगा?
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने सिद्ध देह की प्राप्ति की प्राकिर्तिक क्रिया के बारे में लिखा है और समझाया है| यह सिद्ध देह ऐसा है जैसे कि गोपी के गर्भ में जन्म| श्री गुरु की कृपा से साधक को ब्रज के वनों में और गौड़ देश के वनों में कोई फर्क नहीं दिखता और इस तरह वह ब्रजवासी बन जाता है| उसके समक्ष धाम का नित्य रूप प्रकट हो जाता है और वह श्रीमती राधा रानी की दासी बन जाता है|
देखिते देखिते, भुलिब वा कबे, निज-स्थूल-परिचय
नयने हेरिब, व्रजपुर-शोभा, नित्य चिदानन्दमय
वृषभानुपुरे, जनम लैब, यावटे विवाह ह’बे
व्रजगोपीभाव, हैबे स्वभाव, आन भाव ना रहिबे
निज सिद्ध देह, निज सिद्ध नाम, निजरूप-स्ववसन
राधाकृपाबले, लभिब वा कबे, कृष्णप्रेम-प्रकरण
अनुवाद – देखते देखते कब वह दिन आएगा जब मैं अपने स्थूल परिचय को भूलकर अपनी आँखों से ब्रज की सुन्दरता को देख पाऊँगा, वह ब्रज जो नित्य है और सत् चित् आनंद से परिपूर्ण है? कब वह दिन आएगा जब वृषभानु महाराज के गाँव में मेरा जन्म होगा और जावट में मेरा विवाह होगा? आखिर कब वह दिन आएगा जब ब्रज की गोपी का भाव ही मेरा स्वाभाविक भाव होगा और कोई अन्य भाव मुझमें नहीं रह जाएगा? कब वह दिन आएगा जब राधारानी की कृपा से मुझे मेरा नित्य सिद्ध देह, नाम, रूप, और वस्त्र प्राप्त होंगे और मैं कृष्ण के दिव्य प्रेम की अनुभूति कर पाऊँगा?
उपर्युक्तम पदावली से हमें यह पता चलता है कि सिद्ध देह या दिव्य ब्रज गोपी भाव हमारी चित्त (चेतना) की एक बहुत ही विशुद्ध अवस्था है| अर्थात यह तभी प्रकाशित होती है जब कोई जीव कृष्ण की सेवा में पूर्णतया संलग्न हो जाता है| इस भाव की प्राप्ति, गुरु, जो कि वृषभानु महाराज की पुत्री से अभिन्न हैं, की अनुकम्पा की शक्ति से ही होती है| गोपी के गर्भ में जन्म लेने का अर्थ है सिद्ध देह का प्रकाशित होना और ब्रज गोपी के भाव में स्थिर होना जब बाकी सभी भाव हमें छोड़ दें| यही सुनियोजित क्रिया है अपने सिद्ध देह, नाम, रूप, वस्त्र और सेवा की प्राप्ति की|
कुछ लोग श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के, गोपी गर्भ में जन्म लेने के वर्णन का गलत अर्थ समझते हैं| वास्तविकता में गोपी के घर में जन्म लेना इसी जन्म में संभव है| उसी प्रकार जिस प्रकार जब कोई बालक किसी ब्राह्मण के घर में जन्म लेता है तब उसका जनेऊ संस्कार होता है और ऐसा माना जाता है कि उसका दूसरा जन्म हुआ है| उसके दूसरे जन्म (द्विज) के बाद ही उसे वेदों का अध्यन करने के योग्य माना जाता है| उसी प्रकार केवल दीक्षा होने के बाद ही किसी को शालिग्राम शीला की अर्चना करने के योग्य समझा जाता है| ठीक उसी प्रकार जब तक कि किसी का जन्म गोपी के घर में न हुआ हो तब तक उसे श्री श्री राधा गोविन्द की सेवा करने की योग्यता नहीं मिलती|
जिस प्रकार अर्चन मार्ग में साधक को तब तक विग्रह के अर्चन के योग्य नहीं समझा जाता जब तक उसका अस्तित्व विशुद्ध न हो जाए (भूत शुद्धि)| उसी तरह अप्राकृत भाव मार्ग में जब तक साधक निम्न भौतिक आसक्तियों और भावों को त्याग नहीं देता और ब्रज गोपी भाव को धारण नहीं कर लेता अर्थात गोपी के घर में जन्म नहीं ले लेता तब तक उसे श्री राधा गोविन्द की सेवा, दिव्य भाव, अनुभूति और विचार से करने की योग्यता प्राप्त नहीं होती|
कृष्ण शुद्ध चेतना की सदैव रक्षा करते हैं| अर्थात कृष्ण, चेतना के नित्य सेवा करने के स्वाभाव के प्रयोजन हैं| इसलिए उन्हें गोपियों के नाथ गोपीनाथ कहा जाता है| अगर आत्मा ने गोपी के गर्भ से जन्म नहीं लिया अर्थात यदि किसी जीव की चेतना केवल श्री कृष्ण की सेवा में एकनिष्ट नहीं है, तो फिर उसे राधा माधव की सेवा की योग्यता नहीं प्राप्त होगी|
दुर्गामा संगमनी की व्याख्या में ‘जन्मान्तरपेकशा वर्ताते’ को गलत समझा गया है| ठीक उसी तरह जिस तरह स्मार्त और प्राकृत-सहजिया ने श्रीमद् भागवतम के श्लोक ‘तेपुस्तपस्ते जुहुवुह् सुस्नुह् ’ का गलत अर्थ निकाला है| सहजिया पंडितों ने श्रीमद् भागवतम के इस श्लोक की गलत व्याख्या करते हुए ये बताया है कि जो साधक भगवान् का शुद्ध नाम ले रहे हैं (मगर उच्च कुल में उन्होंने जन्म नहीं लिया है), उन्हें इस भौतिक संसार में उच्च कुल में जन्म लेना होगा जिससे कि उनका जनेऊ संस्कार हो सके|
इसी तरह से श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के भी शब्दों का कुछ लोगों ने गलत अर्थ निकाला है| ऐसे लोगों का यह मानना है कि ऐसे साधक को कभी भी शुद्ध देह नहीं मिल सकता जिसने गोपी के गर्भ से प्रत्यक्ष रूप से जन्म न लिया हो| जबकि शुद्ध देह की प्राप्ति तो अध्यात्मिक जगत का एक ऐसा रहस्य है जिसे स्मरण और भजन द्वारा समझा जा सकता है न कि सामान्य या असामान्य पुस्तकें पढ़कर या फिर असामान्य ज्ञान और बुद्धिमत्ता प्राप्त करके| यह सभी रहस्य उस गुरु परंपरा में सुरक्षित हैं जो श्रील रूप गोस्वामी के पद्द्चिन्हों का अनुसरण कर रही है|
शुद्ध देह, नाम, रूप इत्यादि उसी के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है जो अनावश्यक भौतिक आसक्तियों से मुक्त हो| यह न तो किसी ऐसे तथाकथित गुरु के पास जा कर प्राप्त किया जा सकता है जो अध्यात्मिक व्यापार की दुकान खोल कर बैठा है और न ही इसे संसार के सम्पूर्ण धन संपत्ति के बदले में प्राप्त किया जा सकता है| किसी जीव में अगर इन्द्रिय भोग की बहुत लालसा है जो कि उसके काम और लोभ से उत्पन्न हुई है तो वह न केवल अपने आपको बल्कि दूसरों को भी छल रहा है| यह लक्षण ब्रजवासियों के पद्द्चिन्हों का अनुसरण करने वाले लोगों के लक्षण नहीं हैं| ऐसे साधक तो सभी अनावश्यक भौतिक आसक्तियों से मुक्त होते हैं|
हमने ऐसा सुना है कि ॐ विष्णुपाद श्रील गौरकिशोर दास गोस्वामी प्रभु कुलिया नवद्वीप की एक धर्मशाला में रह रहे थे| उसी समय वहां पर एक गोस्वामी, श्रील सुंदरानन्द ठाकुर के पास से आये और उन्होंने श्रील गौरकिशोर प्रभु से प्रार्थना की कि वह उन्हें सिद्ध प्रणाली और अष्ट कालिन भजन दे दें| पहले दिन पर गोस्वामी की याचना सुनकर श्रील बाबाजी महाराज कुछ समय के लिए शांत रहे और फिर बोले, “ आज मेरे पास यह देने का सुअवसर नहीं है|” दूसरे दिन गोस्वामी जी फिर से पधारे और दोबारा उन्होंने याचना की और बाबाजी महाराज ने उन्हें फिर से वही उत्तर दिया| और इस तरह हर बार जब भी गोस्वामी आकर उनसे याचना करते थे तो बाबाजी महाराज उन्हें हर बार यही उत्तर देते, “आज मेरे पास यह देने का अवसर नहीं है| जब मेरे पास अवसर होगा तब मैं तुम्हें दूंगा|” अंत में गोस्वामी बहुत क्रोधित हो गए और वहां से चले गए|
जिस दिन गोस्वामी वहां से क्रोधित होकर चले गए उस दिन संध्या में बाबाजी महाराज स्वयं से कहने लगे, “वह जो कि भौतिकता में इतना लिप्त है वह सिद्ध प्रणाली और अष्ट कालिन भजन चाहता है? अगर कोई व्यक्ति कुछ पुस्तकों को पढ़कर अष्ट कालिन भजन का ज्ञान अर्जित कर लेता है तो उसे क्या सिद्ध देह की प्राप्ति हो जायेगी? कोई व्यक्ति किसी पुस्तक को पढ़कर सिद्ध देह की प्राप्ति नहीं कर सकता|
इस तरह का अभ्यास अध्यात्मिक व्यापारियों द्वारा किया जा रहा है जिससे बहुत ज्यादा हानि और अहित हो रहा है| ऐसे लोग सीढ़ी की तरफ देखते रहते हैं और उछल कर दूसरी मंज़िल पर पहुंचना चाहते हैं जहाँ पर मेरे कृष्ण रहते हैं| परन्तु अपनी अयोग्यता के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वह ऐसा करते समय सीढ़ी पर मल मूत्र त्याग रहे हैं| ऐसे लोग ऐसी इच्छाओं को पाल रहे हैं जिसमें वह राधा गोविन्द की सेवा के नाम पर राधा गोविन्द के कुन्ज को मलिन कर रहे हैं|
यह व्यापार जो कि इन तथाकथित गुरुओं, जो एक अधपके कटहल की तरह हैं, और उनके शिष्यों के बीच चल रहा है, बहुत ही विनाशकारी है| अगर आपको अपने जीवन में शुभ कार्य चाहिए तो मेरे पास बैठकर निरंतर हरि के पवित्र नाम का जप करो| ऐसा न करके अगर आप अपनी ही धारणा के अनुसार चेष्टाएँ करोगे तो माया रुपी पिसाचिनि आपका गला पकड़ लेगी| न जाने कितने लोग मेरे पास आते है और मेरे साथ छल करना चाहते हैं!”
यह अधपके कटहल के सामान व्यापारी गुरु, श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी की बात सुनकर बिल्कुल भी प्रसन्न नहीं होंगे क्योंकि उनके शब्द शास्त्रों द्वारा प्रमाणित हैं| इसका कारण यह है कि श्रील गौरकिशोर प्रभु ने कभी भी उस पथ की बात नहीं की जिसमें भौतिक भोगों का आनंद उठाया जाता है बल्कि उन्होंने तो सदैव उस पथ की बात की है जिसमें सबका सर्वोच्य कल्याण है और जो पथ भौतिक आसक्तियों से सच्चे वैराग्य का है|
श्रीमान महाप्रभु ने श्रील सनातन गोस्वामी प्रभु से कहा:
दीक्षाकाले भक्त करे आत्मसमर्पण
सेइ काले कृष्ण तारे करे आत्मसम
सेइ देह करे तार चिदानन्दमय
अप्राकृतदेहे ताङ्र चरण भजय
अनुवाद – दीक्षा के समय पर एक जीव शरणागत होता है| इस समय पर कृष्ण उस जीव को अपना समझ कर उसे स्वीकार करते हैं| कृष्ण उस जीव के शरीर को अध्यात्मिक ज्ञान और आनंद से भर देते हैं और इस अध्यात्मिक शरीर में जीव कृष्ण के दिव्य कमल चरणों की सेवा करता है|
साधक की पूर्ण शरणागति और दिव्य ज्ञान से, सिद्ध देह का प्रकाशन होता है, यह सिद्ध देह अध्यात्मिक ज्ञान और आनंद से परिपूर्ण होता है| हांलाकि भौतिक शरीर अध्यात्मिक नहीं बनता| जड़ कभी चेतन नहीं बन सकता| परन्तु जीव की आत्मा का नित्य शरीर प्रकाशित हो जाता है| कुछ लोगों ने भौतिक शरीर, जो कि अंत में कुत्तों और सियारों द्वारा खाया जाता है, को सखी का देह यानि कि सिद्ध देह बनाने का प्रयास किया है| ऐसे लोगों को सखी भेकिस कहा जाता है|
वास्तविकता में इस भौतिक मन और शरीर को सिद्ध देह बनाने का प्रयास भगवान् की सेवा के प्रतिकूल है उसी तरह जिस तरह इस भौतिक शरीर को सखी की तरह सुसज्जित करना| यह सब यथार्थ सेवा के विरुद्ध है और भौतिक इन्द्रिय तृप्ति का एक तरीका है| इस स्थूल भौतिक शरीर को या फिर इस सूक्ष्म शरीर को सुसज्जित करना, सिद्ध देह के प्रकाश से बहुत भिन्न है जिससे कृष्ण की सेवा की जाती है|
इस संदर्भ में श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी द्वारा दिए गए दार्शनिक निष्कर्षों का उल्लेख करना ज़रूरी है| श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी श्रील रूप गोस्वामी के पद्द्चिन्हों के महान अनुयायी हैं| श्रील रूप गोस्वामी के अनुयायी गुरुओं से जिन लोगों ने दिव्य अध्यात्मिक भाव को प्राप्त नहीं किया है वे श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी के इस पद्द का अर्थ कभी नहीं समझ सकते :
पादाब्जयोस्तव विना वरदास्यमेव
नान्यत् कदापि समये किल देवि याचे
सख्याय ते मन नमो’स्तु नमो’स्तु नित्यं
दास्यास्य ते मम रसो’स्तु रसो’स्तु सत्यम्
अनुवाद – हे प्रभु, मैं आपके दिव्य कमल चरणों की सेवा के अलावा और किसी भी चीज़ की प्रर्थना नहीं करता| मैं आपकी सखी बनने की भी प्रार्थना नहीं करता| आपकी सखियों के प्रति मेरी अपार श्रद्धा है और मेरी यह श्रद्धा सदैव बनी रहे| मैं पूरी सच्चाई से कह रहा हूँ कि मेरे मन में आपकी सेवा के लिए अनुराग उत्पन्न हो और आपकी सेवा के प्रति मेरा यह स्नेह सदा बना रहे|
जिन लोगों ने अपने पुरुष शरीर को गोपी या सखी की तरह सजा रखा है वे लोग एक भयंकर अपराध कर रहे हैं| ऐसे लोग न केवल जड़ को चेतन बनाने का और भौतिक को अध्यात्मिक बनाने का प्रयास कर रहे हैं बल्कि ये लोग स्वयं की पूजा करने का भी घोर अपराध कर रहे हैं, जिसे मायावाद भी कहा जाता है|
श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी के अनुसार ऐसे लोग कपटी हैं और इन्हें श्री राधा की सेवा की प्राप्ति की इच्छा नहीं है बल्कि ये लोग तो उनकी सखी बनना चाहते हैं| श्रील जीव गोस्वामी प्रभु ने भक्ति रसामृत सिन्धु की अपनी व्याख्या में कहा है कि इसे अहम्ग्रहोपसन कहा जाता है| इस तरह के कार्यों से यह स्पष्ट है कि न केवल भक्ति के अभ्यास को समाप्त करने की बल्कि भक्ति को ही पूरी तरह से लुप्त करने का प्रयास किया जा रहा है|
श्रील प्रभुपाद भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर